कबीर जी बड़े या कृष्ण

 #कबीर_बड़ा_या_कृष्ण_Part15


गीता ज्ञान देने वाले से अन्य समर्थ परमेश्वर है। अन्य प्रमाण:-

गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में गीता ज्ञान बोलने वाले ने (जिसे आप श्री कृष्ण उर्फ विष्णु मानते हो, उसने) अपने से अन्य परमेश्वर के विषय में बताया है। कहा है कि जो मेरी शरण होकर यानि मेरी राय मानकर (उस परमेश्वर के विषय में किसी तत्त्वदर्शी संत से तत्त्वज्ञान समझ लेते हैं,) जरा यानि वृद्धावस्था (बुढ़ापे) तथा मरण (मृत्यु) से छुटने के लिए यत्न करते हैं। वे ’तत् ब्रह्म‘ यानि उस परमेश्वर को, सम्पूर्ण अध्यात्म को तथा सम्पूर्ण कर्मों को जानते हैं।


गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में अर्जुन ने गीता ज्ञान देने वाले से प्रश्न किया कि जो आपने गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में ’’तत् ब्रह्म‘‘ कहा है, जिसको जानने वाले केवल वृद्ध अवस्था से तथा मरण से छूटने का प्रयत्न करते हैं यानि केवल मोक्ष चाहते हैं। संसार की किसी सुख-सुविधा की इच्छा नहीं करते। कृपया बताईए ’’किम् तत् ब्रह्म‘‘ अर्थात् वह ब्रह्म कौन है? इसका उत्तर गीता ज्ञान दाता ने इसी अध्याय 8 के श्लोक 3 में दिया है। कहा है कि वह ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है। 


अन्य प्रमाण गीता ज्ञान दाता से अन्य परमेश्वर का:-

इसी गीता अध्याय 8 के श्लोक 5 तथा 7 में तो गीता ज्ञान दाता ने अपनी पूजा करने को कहा है। कहा है कि हे अर्जुन! यदि तू मेरी भक्ति करेगा तो निसंदेह मेरे को ही प्राप्त होगा। इसलिए युद्ध भी कर और मेरा स्मरण भी कर। मुझे ही प्राप्त होगा।

फिर इसी गीता अध्याय 8 के श्लोक नं. 8, 9 तथा 10 में अपने से अन्य (तत् ब्रह्म यानि परम अक्षर ब्रह्म) परम दिव्य पुरूष यानि परमेश्वर के विषय में बताया है। कहा है कि जो साधक उस परमेश्वर (परम अक्षर ब्रह्म) की भक्ति करता है, तो उसी को प्राप्त होता है।


गीता ज्ञान दाता से अन्य परमेश्वर‘‘

गीता अध्याय 8 के ही श्लोक नं. 8, 9 तथा 10, जिनमें गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परम दिव्य पुरूषपरम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करने को कहा है।


विशेष:- गीता ज्ञान देने वाले ने गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में अपनी भक्ति का मंत्र (नाम) बताया है।

मूल पाठ:- ओम् इति एकाक्षरम् ब्रह्म व्याहरन् माम् अनुस्मरन्।

यः प्रयाति त्यजन देहम् सः याति परमाम् गतिम्।।(13)


अर्थात् (माम्) मुझ (ब्रह्म) ब्रह्म का (अनुस्मरन्) स्मरण करने का (इति) यह (एकाक्षरम्) एक अक्षर (ओम्)  है। (यः) जो साधक (त्यजन देहम्) शरीर त्यागकर (प्रयाति) जाता है यानि अंतिम श्वांस तक इसका स्मरण करता है तो (सः) वह साधक ओम् नाम के जाप से मिलने वाली (परमाम् गतिम्) परमगति को यानि ब्रह्मलोक को (याति) प्राप्त होता है।

ओम् नाम के जाप से साधक ब्रह्मलोक में जाता है। यह प्रमाण श्रीमद् देवी भागवत के सातवें स्कन्ध के 36वें अध्याय में है। इस अध्याय की फोटोकाॅपी इसी पुस्तक के पृष्ठ 45 पर लगी है। गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्मलोक में गए साधक का जन्म-मरण का चक्र सदा बना रहता है। ब्रह्मलोक में गए भक्त भी पुनरावर्ती में हैं।


कृपया अदालत नोट करे:- इस श्लोक के अनुवाद में गलती है। लिखा है कि मुझ (गीता ज्ञान देने वाले) को प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता।

गीता ज्ञान देने वाले ने गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 2 श्लोक 12 तथा गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में स्पष्ट किया है कि मेरे अनेकों जन्म हो चुके हैं, आगे भी होते रहेंगे। जब उसके स्वयं जन्म-मृत्यु होते हैं। फिर यहाँ कैसे कह सकता है कि मेरे को प्राप्त होकर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता? इसका यथार्थ अनुवाद इस प्रकार है:- हे अर्जुन! ब्रह्मलोक में गए साधक भी पुनरावर्ती में हैं यानि नीचे से लेकर ब्रह्मलोक तक सब लोकों के प्राणी पुनरावर्ती में हैं अर्थात् सदा जन्म-मरण के चक्र में रहते हैं। जो यह नहीं जानते, वे मेरी भक्ति करके मुझे प्राप्त होकर (ब्रह्मलोक में जाकर) भी जन्मते-मरते रहते हैं यानि उस साधक का पुनर्जन्म होता है।

गीता ज्ञान देने वाले ने अपने से अन्य परम अक्षर ब्रह्म यानि परमेश्वर की भक्ति करने का मंत्र (नाम) गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में बताया है जो सांकेतिक है। कहा है कि सच्चिदानंद घन ब्रह्म (परम अक्षर ब्रह्म) की भक्ति का (ओम्) तत् सत्, यह तीन नाम का स्मरण बताया है जिसकी स्मरण की विधि भी तीन प्रकार से है।

ये तीनों नाम सांकेतिक हैं। ओम यह भी सांकेतिक है। इसका स्पष्ट नाम ‘‘ओम्’’ इसी प्रकार तत् तथा सत् भी सांकेतिक हैं। इनके स्पष्ट नाम अन्य हैं जो दास के पास हैं। वर्तमान में दास (रामपाल दास) के अतिरिक्त विश्व में किसी गुरू, ऋषि, संत, देवता आदि को इन यथार्थ मंत्रों का ज्ञान नहीं है। मेरे कुछ अनुयाईयों को दास ने तीनों नाम स्पष्ट कर रखे हैं। वे उनका जाप करते हैं।


गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा है कि मैं उस ‘‘तत् ब्रह्म’’ यानि परम अक्षर ब्रह्म (परमेश्वर) के विषय में सम्पूर्ण ज्ञान नहीं जानता। किसी तत्त्वदर्शी संतों के पास जाकर उस ज्ञान को समझ। उनको दण्डवत प्रणाम कर, उनकी सेवा कर। नम्रतापूर्वक प्रश्न कर। तब वे तत्त्वज्ञानी महात्मा तुझे तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।  तत्त्वदर्शी संत की पहचान भी बताई है:- गीता अध्याय 15 के श्लोक 1,4 में स्पष्ट किया है कि यह संसार रूपी पीपल का वृक्ष मानो। उसकी जड़ ऊपर को पूर्ण ब्रह्म यानि परम अक्षर ब्रह्म है। नीचे को तीनों गुण रूप शाखाएँ हैं। जो संत इस संसार रूपी वृक्ष के सब अंगों की जानकारी रखता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है यानि वह तत्त्वदर्शी संत है।


गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि ‘‘तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक कभी लौटकर संसार में नहीं आता।‘‘ यह भी स्पष्ट है कि उसी की भक्ति करनी चाहिए।


गीता अध्याय 15 के ही श्लोक 16,17 में तीन पुरूष (प्रभु) बताए हैं। क्षर पुरूष (गीता ज्ञान देने वाला) जो केवल इक्कीस ब्रह्मंडों का प्रभु है, अक्षर पुरूष जो सात संख ब्रह्मडों का स्वामी प्रभु है तथा तीसरा परम अक्षर ब्रह्म यानि परमेश्वर सबका मालिक है। जो उपरोक्त क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष से अन्य है, वह वास्तव में अविनाशी है। वही पुरूषोत्तम है। वही परमात्मा कहा जाता है।

गीता अध्याय 15 श्लोक 16,17 का श्लोक 1,4 से संबंध है। गीता अध्याय 15 श्लोक 1,4 में कहा है कि ‘‘यह संसार पीपल के वृक्ष के समान जानों। इसकी जड़ (मूल) ऊपर को मानो जो परम अक्षर ब्रह्म है तथा नीचे को तीनों गुण (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) जानों। इस संसार रूप वृक्ष के पत्ते आदि (तना व मोटी डार) विभाग हैं। जो इस संसार रूप वृक्ष के सब अंगों (मूल, तना, डार, शाखा तथा पत्ते) को जानता है, वह तत्त्वदर्शी संत है। परमेश्वर कबीर जी ने काशी (बनारस) शहर (भारत देश) में प्रकट काल (सन् 1398.1518) में लगभग 550 वर्ष पूर्व यानि सन् 1398-1518 के दौरान तत्त्वदर्शी संत रूप में यह भेद बताया था। कहा था कि:-

’’कबीर, अक्षर पुरूष एक पेड़ है, क्षर पुरूष वाकी डार।

तीनों देवा शाखा हैं, पात रूप संसार।।‘‘

अर्थात् इस संसार रूप वृक्ष का तना तो अक्षर पुरूष जानो, डार मानो क्षर पुरूष, तीनों देवता (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) शाखा मानों और छोटी टहनियों तथा पत्तों को देवता समेत अन्य जीव-जन्तु जानों। (मूल रूप परमेश्वर कबीर जी हैं जो आगे प्रमाणों से सिद्ध हो जाएगा।)

गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में कहा है कि क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष दोनों तथा इनके लोकों के सब प्राणी नाशवान हैं। आत्मा सबकी अमर हैं


गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि ‘‘उत्तम पुरूष यानि पुरूषोत्तम तो (उपरोक्त क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष से) अन्य ही है जो परमात्मा कहा जाता है। जो तीनों लोकों में (क्षर पुरूष का लोक, अक्षर पुरूष के लोक तथा अपने परम अक्षर ब्रह्म के लोक, इन तीनों लोकों में) प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। वास्तव में अविनाशी परमेश्वर यानि परम अक्षर ब्रह्म है क्यांेकि वृक्ष का पोषण मूल (जड़) से होता है। उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट हुआ है कि श्री विष्णु उर्फ श्री कृष्ण से अन्य परमेश्वर है जो वास्तव में अविनाशी है। सबका धारण-पोषणकर्ता है। सबकी उत्पत्तिकर्ता है। वही उत्तम पुरूष (पुरूषोत्तम) है। अविनाशी परमेश्वर है। परम शांतिदायक है। जन्म-मरण से छूटने के लिए गीता ज्ञान देने वाले ने अर्जुन के माध्यम से भक्त समाज को उसी अपने से अन्य कबीर परमेश्वर की शरण में जाने के लिए कहा है।


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